नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

शुक्रवार, 30 सितंबर 2016

पागल का घर


शाम के धुंधलके में
जबकि चिडियां वापस जा रही थीं
अपने घोंसलों में बच्चों के पास
गायें भी रंभाती हुई भागती सी
अपने छौनों के लिए
आलस भरी अंगड़ाई लेकर
जागने की तैयारी में थे उल्लू भी
पेड़ की शाखों पर उल्टे लटके हुए
दिनभर खेतों में काम करके
किसान भी लौट रहे थे घरों को
अपने हल और बैलों के साथ
कुछ बैलगाड़ियाँ भी लौट रही थीं हाट-बाजार से
और इन सबका इंतजार करती हुई
कुछ जोड़ी आँखें भी झांक रही सी
घरों की चारदीवारी से
अँधेरा गहराने लगा था अब तक
पहुँच चुके थे तब तक लोग अपने घरों में
चिडियां अपने घोसलों में
गायें अपने छौनों के पास
और पहुँच चुका था पागल भी
चाय-पकौड़ी वाले होटल के
बाहर बिछे तख़्त पर
दिनभर यहां-वहां भटकने के बाद 

                   (कृष्ण धर शर्मा, २०१६)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें