नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

शनिवार, 27 अगस्त 2016

ओलम्पिक का सफ़र (ये राह नहीं आसान)

ओलंपिक में भारत एक रजत और कांस्य पदक छोड़ कोई अन्य पदक नहीं जीत पाया। वास्तव में यह शर्म की बात है। भारत से बड़ी उम्मीदें थीं, लेकिन उपलब्धि अपेक्षा से बहुत कम रही। हॉकी, जिसे हमने पश्चिम को सिखाया, अब इस उपमहाद्वीप से गायब हो चुका है। खेल को ज्यादा आकर्षक बनाने के नाम पर नियमों में किए गए बदलाव के बाद पश्चिम ने हॉकी पर एकाधिकार स्थापित कर लिया है। लेकिन सिर्फ नियमों में किये गये बदलावों को दोषी ठहराना उचित नहीं होगा। हमारे खिलाडिय़ों के पतन का मूल कारण उनमें आत्मशक्ति एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अभाव रहा है। महिलाओं का प्रदर्शन पुरुषों की तुलना में बेहतर रहा है जबकि इसके लिए कड़ी मेहनत की जरूरत होती है। अगले कुछ वर्षों में हमारा प्रदर्शन उन छोटे देशों से भी खराब हो जाएगा, जो दुनिया के नक्शे पर महज बिंदु भर हैं। आबादी के हिसाब से भारत ओलंपिक पदक के मामले में सबसे निचले पायदान पर है। इसके कई और कारण हैं। भारत में 1500 करोड़ रुपए के केंद्रीय बजट के अलावा मोटे तौर पर प्रत्येक राज्य का 250करोड़ का बजट है। कुछ राज्यों में खेल की आधारभूत संरचनाएं मौजूद हैं, लेकिन उनका सही रखरखाव और नियमित इस्तेमाल नहीं होता। राज्यों एवं केंद्र का खेल के प्रति समग्र रूप में कोई नजरिया नहीं है। नतीजा है कि खेल बजट का महज एक मद होता है, लेकिन किसी भी खास खेल में बेहतरी के नजरिए से कुछ नहीं किया जाता। क्रिकेट आगे बढ़ा है, क्योंकि इसे लेकर जनता ठीक उसी तरह दिवानी है जिस तरह कुछ साल पहले हॉकी को लेकर थी। यह सिर्फ इस बात की हकीकत को दर्शाता है कि खेल को लेकर कोई सही योजना या वैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं है। मास्को खेल प्रतियोगिता 1980 तक हॉकी भारत का प्रतिष्ठित खेल था, जब भारत ने आठवीं और अंतिम बार हॉकी का स्वर्णपदक जीता था। इसके बाद लगातार गिरावट आती गई और आज तक भारत किसी ओलंपिक में सेमीफाइनल तक भी नहीं पहुंच पाया। इसके विपरीत भारत ने 1983 में पहली बार क्रिकेट का विश्व कप जीता और इसके बाद क्रिकेट लगातार उठान पर ही रहा। आज क्रिकेट ने अनेक अवसर एवं हस्तियां उपलब्ध कराई हैं, जिसके चलते क्रिकेट और भी अधिक लाभप्रद हो गया है। भारत में धर्म के बाद सबसे ज्यादा उन्माद क्रिकेट को लेकर ही है। चूंकि भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड बहुत अधिक पैसा कमा रहा है, इस कारण क्रिकेट को सरकारी सहायता की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन, इसके साथ ही क्रिकेट समेत दूसरे खेलों में बहुत अधिक राजनीति घुस गई है। प्रत्येक खेल के राष्ट्रीय फेडरेशनों में किसी न किसी पद पर विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता काबिज हैं और क्रिकेट भी इसका अपवाद नहीं है। खेलों पर इसका प्रतिकूल असर पड़ा है, क्योंकि राजनीतिज्ञ इनका इस्तेमाल अपने नाम एवं शोहरत के लिए कर रहे हैं। खेद की बात है कि पैसा का इंतजाम करने के लिए आज हर खेल फेडरेशनों द्वारा कुछ मंत्रियों या बड़े नौकरशाहों की मदद ली जा रही है। इसके एवज में राजनीतिज्ञ खेल फेडरेशनों में पद हथिया कर रूतबा और अहमियत हासिल करते हैं। दूसरे शब्दों में इससे दोनों का हित सध रहा है। भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) एवं इसके कामकाज पर जस्टिस लोधा पैनल की रिपोर्ट के आलोक में सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला आंखें खोलने वाली है। पैनल की अनुशंसाएं लागू की जाए तो बीसीसीआई या किसी दूसरे खेल फे डरेशनों के पदों पर राजनीतिज्ञों एवं बड़े नौकरशाहों के काबिज होने पर रोक लगेगी। यह हर कोई जानता है कि व्यवस्था चाहे जो भी हो शरद पवार,अरुण जेटली, फारूख अब्दुल्ला, राजीव शुक्ला, जैसे कई लोग इसके अभिन्न अंग बने रहते हैं। ये लोग चूंकि अधिकारियों या दूसरे स्रोतों से पैसा ला सकते हैं, इसलिए वे यहां बने हुए हैं। अगर ये लोग पद छोड़ दें, और सरकार द्वारा बहुत कम वित्तीय सहायता मिले तो इन फेडरेशनों के पास पैसा का इंतजाम करने के लिए कौन सा तंत्र होगा? खेलों के लिए कारपोरेट से आर्थिक सहायता बहुत ही कम है। सिर्फ क्रिकेट इसका अपवाद है। लेकिन सबसे बड़ी कमजोरी ग्रामीण भारत में खेलों के विकास का नहीं होना है। यह वह जगह है जहां अपरिक्व प्रतिभाएं बहुतायत में होती हैं, लेकिन उन्हें खोजने-तलाशने का सही उपाय नहीं है। पुन: खेदजनक है कि भारत में कोई खेल संस्कृति नहीं है। जूनियर सेक्शन में अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं के आयोजन के लिए खेल फेडरेशनों को जो भी थोड़ा-बहुत पैसा मिलता था उसे सरकार ने बंद कर दिया है। सरकार के इस निर्णय ने फेडरेशनों की मुश्किलें और बढ़ा ही दी हैं। युवा प्रतिभाओं को बढ़ावा देने के लिए पर्याप्त मदद के बगैर सरकार श्रेष्ठ प्रदर्शन की उम्मीद कैसे करती है? ओलंपिक में भाग लेने वालों के लिए सिर्फ 300 करोड़ आबंटित कर देने, और वह भी रियो से सिर्फ तीन माह पहले, से काम नहीं चलने वाला। सिर्फ लगातार प्रयास एवं सुसंगत तरीके से लंबे समय तक कोष उपलब्ध कराने से पदक पाने में मदद मिल सकती है। चीन का उदाहरण देखें। यह प्रतिभाओं को बहुत कम उम्र में चुन लेता है और इन लडक़े-लड़कियों को ओलंपिक में पदक हासिल करने लायक बनाने के वक्त तक मदद करता है। इन युवा प्रतिभाओं को ज्यों ही नेशनल सेंटर में दाखिल किया जाता है उनकी जवाबदेही सरकार की हो जाती है और उन्हें किसी बात की चिंता नहीं करनी रहती। यहां तक कि अपनी शिक्षा के बारे में भी नहीं। लेकिन भारत में हम खेल की कीमत पर शिक्षा पर ध्यान देते हैं। दीपा कर्माकार का बेहतरीन प्रदर्शन देखने को मिला। वह पहली जिमनास्ट बनी जिसे ओलंपिक में जगह मिली। ओलंपिक में उसे चौथा स्थान मिलना पदक जीतने से कम नहीं है, क्योंकि त्रिपुरा में बहुत कम सुविधाओं के साथ उसे प्रशिक्षण मिला था। भविष्य की ओर देखते हुए भारत को ओलंपिक में गौरव हासिल करने के रास्तों एवं साधनों के बारे में सोचना चाहिए। भारत को कुछ खेलों के युवा प्रतिभाओं को चुनकर उन पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए न कि जो भी थोड़ा-बहुत पैसा है उसे अनाप-शनाप तरीके से ओलंपिक के सभी 28 खेलों पर खर्च कर देना चाहिए। इसके अलावा, सरकार एक खेल नीति बना सकती है। यह खेल नीति मौजूदा नीति से अलग होनी चाहिए, जो खिलाडिय़ों को कॅरियर सुनिश्चित करने की गारंटी प्रदान करे। टुकड़े-टुकड़े में प्रोत्साहन देकर हम पदक नहीं जीत सकते। और हमें अगले ओलंपिक के छह माह पहले मुआयना करना चाहिए कि तैयारियों में हमने कहीं देर तो नहीं की है, जैसा कि अब तक होता रहा है। आएं, रियो को भूल जाएं और टोक्यों के बारे में सोचें और आज से ही तैयारी शुरू कर दें. कुलदीप नैय्यर

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