नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

रविवार, 22 मार्च 2009

समय का महत्व

यह घटना उस समय की है, जब स्वतंत्रता आंदोलन जोर पकड़ रहा था। गांधीजी घूम-घूमकर लोगों को स्वराज और अहिंसा का संदेश देते थे। एक बार उन्हें एक सभा में बुलाया गया। सभा का संचालन एक स्थानीय नेता को करना था। गांधीजी समय के पाबंद थे। वह निर्धारित समय पर सभास्थल पर पहुंच गए। उन्होंने देखा कि सभास्थल पर सभी लोग पहुंच गए हैं, लेकिन जिन नेता को सभा का संचालन करना था, वह नहीं पहुंच पाए हैं। सभी लोग बेसब्री से उस नेता की प्रतीक्षा करते रहे।

वह पूरे पैंतालीस मिनट बाद सभास्थल पर पहुंचे। उन्होंने देखा कि उनकी अनुपस्थिति में ही सभा चल रही है। यह देखकर वह लज्जित हुए। मंच पर पहुंच कर उन्होंने आयोजकों से पूछा कि उनके बिना सभा कैसे प्रारंभ हुई? इस पर आयोजक कुछ नहीं बोले।

गांधीजी नेताजी के हाव-भाव से उनकी बातें समझ गए। वह मंच पर आए और नेताजी की ओर देखते हुए बोले, 'माफ कीजिएगा, लेकिन जिस देश के अग्रगामी नेतागण ही महत्वपूर्ण सभा में पैंतालीस मिनट देर से पहुंचेगे वहां पर स्वराज भी उतनी ही देर से आएगा। नेता के इंतजार में अन्य लोग भी कार्य प्रारंभ नहीं कर सकते। यह सोचकर मैंने सभा शुरू करा दी क्योंकि मुझे डर था कि आपके देर से आने की आदत धीरे-धीरे अन्य लोगों को भी न लग जाए। मेरा मानना है कि लोग एक-दूसरे की अच्छी बातें ही सीखें, बुरी बातें नहीं।' गांधीजी की बात सुनकर नेताजी को शर्मिंदगी महसूस हुई। उन्होंने उसी क्षण संकल्प लिया कि आगे से वह भी वक्त का महत्व समझेंगे और अपना हर कार्य निर्धारित समय पर करेंगे।

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